व्यंगकर्ता - वरिष्ठ पत्रकार चैतन्य भट्ट
झूले का आनंद इसलिए भी है कि एक बार वह ऊपर जाता है और जब नीचे आता है और उस दौरान पेट में जो गुड़गुड़ाहट होती है उसका भी अपना मजा होता है। हां तो बात हो रही है झूले की कि अब सावन में झूले नहीं लगते क्या लोग झूले भूल गए हैं अब इन मासूमों को कौन समझाए कि कौन कहता है सावन में झूले नहीं लगते यहां तो पूरे साल झूले लगे हुए और हर आदमी उन झूलों में झूल रहा है ये बात अलहदा है कि उसे ये अदृश्य झूले दिखाई नहीं दे रहे , मसलन नेता, मंत्री आम जनता को अपने वादों का झूला झूला रहे हैं ये झूला खूब ऊपर जाता है और फिर धड़ाम से नीचे आ जाता है वैसे ये बड़ा पुराना झूला है, जब से देश आजाद हुआ है ये तब से चल रहा है और जनता लगातार झूले में झूल रही है।
अर्थव्यवस्था का जो झूला है वह भी बहुत तेज झूल रहा है लेकिन ये ऊपर कम जाता है नीचे बहुत तेजी से आता है ।बेरोजगार नौजवान रोजगार पाने का झूला झूल रहे है वे इस आशा में झूले का इंतजार कर रहे हैं कि जैसे ही झूला उनकी तरफ आएगा वे उसे पकड़ कर उसमें लटक जाएंगे पर ये झूला गोदाम में बंद हो चुका है जिसके बाहर निकलने की उम्मीद कम ही है।
शेयर मार्केट का झूला तो इतनी स्पीड से ऊपर नीचे होता है कि खरीदने वाले कभी नोट कमा नहीं पाते क्योंकि यह झूला कब ऊपर चला जाए कब नीचे आ जाजाए "नोबडी नोज" कोरोना का झूला तो आजकल चल ही रहा है कभी इधर, कभी उधर ,ये ऊपर नीचे आड़ा तिरछा कहीं भी झूल जाता है कोई भरोसा नहीं इस झूले का, इस झूले पर पर लोग नहीं बैठते बल्कि झूला लोगों पर ही बैठा जा रहा है।
झूले और भी हैं अभी तो निजी नौकरी करने वाले इस असमंजस के झूले पर झूल रहे हैं कि उन्हें तनख्वाह मिलेगी कि नहीं मिलेगी "पत्रकार" अपनी संस्था के झूले में बैठे हैं जिसमें उन्हें यह नहीं पता है कि मालिक उन्हें कब झूले से नीचे धकेल देगा, जहां तक विदेश का सवाल है हमारे प्रधानमंत्री ने चीन के प्रधानमंत्री को झूले में बैठा कर उन्हें झूला झुलाया था, अब वही चीन हमें झूले पर बैठाए हुए है कभी यहां कब्जा करता है तो कभी वहां कब्जा करता है पाकिस्तान ने तो जब चाहे आतंकवादी हमला कर हमें मौतों का झूला झुलाया है।
अपने शहर की बात करें तो हम लोग तो बरसों से वादों के झूलों से झूल रहे हैं स्मार्ट सिटी का झूला बड़े तामझाम के साथ आया था पर आज तक झूला स्टार्ट हो पाया ,सड़कों पर वाहन चलाओ तो झूले जैसा आनंद तो अपने आप आता है । इससे ज्यादा मजेदार झूला और कौन सा हो सकता है सावन छोड़ो, भादों छोड़ो, क्वार, कार्तिक, अगहन ,मास पूस ,फागुन, चैत, बैसाख यानी पूरे साल जनता तो झूला झूल रही है इधर शहर के नेता शहर कि जनता को झूले पर बैठाए हैं तो "मामाजी" उन्हें झुलाए पड़े हैं कितनी आशा कि उन्हें कि मंत्रिमंडल का झूला उनकी तरफ आएगा और वे उसमें सवार हो जाएंगे पर मामा ने इतने साल राजनीति में कोई घास तो छीली नहीं है उन्होंने अपने मंत्रिमंडल का झूला इस शहर से ही उखाड़ लिया और ले जाकर ग्वालियर में फिट कर दिया ना रहेगा बांस ना बजेगी बांसुरी ,ना रहेगा झूला ना उस पर लटक पाएंगे नेता ।कोरोना के चलते बच्चे भी झूला झूल रहे हैं कि परीक्षा होगी कि नहीं होगी ,जनरल प्रमोशन मिलेगा या नहीं मिलेगा ,पढ़ाई होगी कि नहीं होगी। यानी कुल मिला कर पूरा देश ,पूरा प्रदेश, पूरा शहर तरह-तरह के झूलों का आनंद उठा रहा है। उसे ना सावन की राह देखने की जरूरत है ना भादो की ,चौतरफा झूले लगे हुए हैं और लोग झूल रहे हैं।
अब जो लोग सावन में झूले ना लगने का रंज मना रहे थे उनको इस बात से संतोष जरूर हो गया होगा कि देश में झूलों की कमी नहीं है झुलाने वाला चाहिए झूलने वाले तो लाखों हैं।
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