नई दिल्ली: यूपी में 2024 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को बड़ा झटका लगा है। जहां पार्टी के सांसदों की निष्क्रियता और जनता में पनपी नाराजगी ने इस हार की प्रमुख वजहें रहीं। 2019 के चुनावों में जीत के बाद सांसदों ने जनता से दूरी बनाए रखी और सिर्फ मोदी-योगी के सहारे चुनाव जीतने का सपना देखा। इसका नतीजा यह हुआ कि भाजपा, जो 80 सीटों पर क्लीन स्वीप का दावा कर रही थी, सिर्फ 33 सीटों पर सिमट गई।
सपा-कांग्रेस गठबंधन ने खेला गेमचेंजर का रोल
सपा और कांग्रेस के गठबंधन ने भाजपा और उसके सहयोगी दलों के विजय रथ को रोकते हुए कुल 80 सीटों में से आधे से भी कम पर सीमित कर दिया। 2014 और 2019 में पीएम मोदी को सत्ता तक पहुंचाने वाला यूपी इस बार भाजपा के लिए एक बड़ा चैलेंज साबित हुआ।
जनता में सांसदों के खिलाफ नाराजगी
सूत्रों के अनुसार, कई सांसदों की निष्क्रियता के कारण जनता में नाराजगी थी। चुनाव जीतने के बाद पांच साल तक जनता के बीच न दिखने वाले सांसदों को लेकर जनता ने अपनी नाराजगी जाहिर की। भाजपा के रणनीतिकारों ने इस असंतोष को नजरअंदाज किया, जिसके चलते सात केंद्रीय मंत्रियों समेत कुल 26 मौजूदा सांसदों को हार का सामना करना पड़ा।
माहौल के खिलाफ दोबारा उतारे गए सांसद
खराब छवि और माहौल के बावजूद भाजपा ने 40 से अधिक सांसदों को दोबारा टिकट दिया। आंतरिक सर्वेक्षणों में भी तीन दर्जन से अधिक सांसदों के चुनाव न जीतने की रिपोर्ट आई थी, लेकिन इसे नजरअंदाज कर उन्हें दोबारा मैदान में उतारा गया।
मोदी-योगी की कोशिशें भी काम नहीं आईं
प्रधानमंत्री मोदी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने संबंधित सीटों के जातीय समीकरणों को देखते हुए मंत्रियों और संगठन के पदाधिकारियों को उन सीटों पर उतारा, लेकिन जनता में पनपी नाराजगी कम नहीं हुई।
अति आत्मविश्वास ने किया नुकसान
भाजपा के शीर्ष नेतृत्व का अति आत्मविश्वास भी पार्टी के लिए घातक साबित हुआ। स्थानीय कार्यकर्ताओं और पार्टी के काडर की अनदेखी करते हुए टिकट बांटे गए, जिसके परिणामस्वरूप भाजपा को बड़ा नुकसान हुआ।
निष्कर्ष
भाजपा के 63 मौजूदा सांसदों में से 48 को 2024 के चुनावी मैदान में उतारा गया, जिसमें से 26 हार गए। यह पार्टी के लिए एक बड़ा संदेश है कि जनता की नाराजगी को नजरअंदाज करना महंगा साबित हो सकता है। यदि शीर्ष नेतृत्व ने जनता की मंशा को समझकर नए चेहरों को मौका दिया होता, तो शायद परिणाम कुछ और होते।
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